रामवृक्ष बेनीपुरी के 'डायरी के पन्ने' के कुछ खास पन्ने

यदि आर्थिक संकट से उद्धार पाना है न, तो मुझे प्रकाशन को कुछ गहरे पकड़ना होगा। हमने इस ओर ढील की; उसी का फल है कि आज 10-20 रुपए के लिए भी सोच में पड़ जाता हूॅं।

रामवृक्ष बेनीपुरी के 'डायरी के पन्ने' के कुछ खास पन्ने

कोशिश में हूॅं, स्टॉक में जितनी पुस्तकें हैं, उन्हें खपा दूॅं। लगभग 20 हजार का स्टाक है। यदि ये खप जाऍं, तो पुराने कर्जों से दूर हो जाऊॅं; नए सिरे से फिर इन्तजाम करने में सहूलियत हो।

देख रहा हूॅं, प्रकाशन को हमने बर्बाद कर दिया है। ग्रंथावली का प्रथम भाग है नहीं; आठ-दस प्रतियाॅं भी नहीं! दूसरे भाग की मुश्किल से चालीस-पचास प्रतियां होंगी। दूसरे भाग की पुस्तकों को अलग-अलग बॅंधवा लिया है कि छोटी कीमत होने के कारण उन्हें जल्द-जल्द बेचकर रुपए निकाल लूॅं! कोई चारा जो नहीं था।

प्रथम भारत की कई पुस्तकें- "कैदी की पत्नी", "लालतारा""गेहूं और गुलाब" की प्रतियाॅं ही नहीं है! मेरी यह पुस्तकें कितनी चलने वाली हैं! किन्तु बाजार में उपलब्ध नहीं। क्या इन्हें तुरंत ही प्रकाशित करने की आवश्यकता नहीं है?

"पैरों में पंख बांधकर", "उड़ते चलो, उड़ते चलो" और "पेरिस नहीं भूलती"- इनकी भी बाजार में अच्छी मांग है। पहली दो पुस्तकें दूसरे प्रकाशकों ने छपवाईं- वे भी अब अनुपलब्ध हैं। "पेरिस नहीं भूलती" मेरी सबसे प्यारी रचना थी। उसे श्रीमान् परमेश्वर जी डकार गए! उफ़, रुपए की जरूरत होने से मैंने किस कसाई के हाथ इस बाछी को बेच दिया!

आज अपना सूचीपत्र देख रहा था। अभी छ: पुस्तकें ऐसी हैं, जिन्होंने प्रकाश भी नहीं देखा है। क्या उनकी पांडुलिपियाॅं तैयार कर उन्हें प्रकाशित करने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए?

"मुझे याद है!"- यह मेरे जीवन का संस्मरण है; बिल्कुल संक्षिप्त; किंतु सारी बातें आ गई हैं इनमें! दो वर्षों से तैयार है सारी पांडुलिपि! किन्तु इसे प्रकाशित नहीं करा सका। अब अधिक दिनों तक इसे अप्रकाशित रखना असह्य है! 

अपने जीवन और लेखन पर कुछ फुटकर चीजें लिखी हैं। "मैं कैसे लिखता हूँ"- नाम से उनका संकलन भी तैयार है। इसे भी तुरन्त प्रकाशित करा देना है। सोचता हूँ इसका नाम "साहित्य और व्यक्तित्व" क्यों न रख दूँ! शायद यह नाम अधिक उपयुक्त हो!

"बूढ़ा कुत्ता"- नाम से एक शब्दचित्र लिखा; लोगों ने बहुत पसंद किया। "बाढ़ का बेटा" नाम का स्केच भी अच्छा उतरा है। "सुच्चा सिंह" हाल ही में लिखा है! कुछ और भी स्केच हो सकते हैं- "बुद्धगुरु"- अपने गुरुजी बुद्धिनाथ लाल पर एक स्केच तैयार करने को कब से न सोच रहा हूँ! 'बिहारी' पर भी एक अच्छा स्केच हो सकता है! कुछ और छोटे-मोटे स्केच लिखकर इसे पूरा कर ही देना है और तुरन्त छपवा भी लेना है! "पंडुक और भुंजगा" नामक स्केच भी इसमें दिया जा सकता है। 

इधर दो-तीन वर्षों से "धरती की धड़कन" नामक एक स्केच-बुक तैयार करना चाहता हूँ; किन्तु उसका काम बहुत ही धीमे जा रहा है। अभी कुल चार स्केच लिख सका हूँ, पाँचवाँ अधूरा ही है। इसे तो तुरन्त ही पूरा कर लेना है। मेरा ख्याल है, "माटी की मूरते" की तरह यह पुस्तक भी लोगों को पसन्द आएगी। "तोरी फुलाथल, होरी आयल", "रिमझिम, रिमझिम", "जानि शरद ऋतु खंजन आवा" तथा "मासानाम् मार्गशीर्षोऽहम्" तैयार हैं- "जब मँजरियाँ फूटीं" अधूरी पड़ी है।

आठ वर्षों से डायरी लिख रहा हूँ। इधर इसके कई अंश पत्र-पत्रिकाओं में छपवाए; लोगों ने पसंद किया है! क्या उसके कुछ अंशों को "मेरी डायरी" के नाम से एक पुस्तक के रूप में नहीं छपवाया जा सकता? सूचीपत्र में इसकी सूचना भी दे दी गई है!

"कुछ इधर की, कुछ उधर की" यह भी एक अच्छी पुस्तक हो सकती है; जिसमें अपने देश और विदेश के उन स्थलों का वर्णन हो, जिनकी चर्चा मैंने फुटकर रूप से की है। "अत्र-तत्र" भी इसका नाम दिया जा सकता है!

इधर मैंने आल इन्डिया रेडियो के नेशनल प्रोग्राम में कुछ ध्वनि-चित्र दिए हैं। 'कोसी' नाम से जो ध्वनिचित्र दिया है, वह तो रेडियो के इतिहास में 'डाक्युमेंटरी फीचर' का प्रथम नमूना माना जाता है। इसी तरह अभी 'इस्पातपुरी' नामक ध्वनि-चित्र दिया है। 'वैशाली और लुम्बिनी' पर मैंने दो ध्वनि-चित्र बुद्ध -जयन्ती के समय दिए थे। 'गंगापुल' पर भी एक ध्वनि-चित्र दे चुका हूँ। 'जंगल में मंगल' करके एक ध्वनि-चित्र जंगली जानवरों के जीवन पर दिल्ली में दिया था। क्या यह अच्छा नहीं होगा कि इनका 'ध्वनि-चित्र' नाम से एक अलग संग्रह तैयार कर दूँ। हिन्दी में सर्वथा नई चीज होगी।

'मशाल' को भी नया रूप दे ही देना चाहिए। 

और क्या मेरी बच्चों की पुस्तकें प्रकाशकों द्वारा फटीचर रूप में निकाली गईं, वह अच्छी साज-सज्जा नहीं पा सकेंगी? उन्होंने मुझे कितने पैसे दिए हैं! क्या उनकी माँग नहीं है कि मैं उन्हें घूर पर से हटाऊँ; जरा नहला दूँ, सजा दूँ! लगभग दो दर्जन पुस्तकें हैं, मुझे उनका उद्धार करना ही पड़ेगा। करना ही पड़ेगा! 

संक्षेप में यह -

1960 तक ग्रंथावली के दसों खंड निकल जाएँ- मेरी सारी पुस्तकें साज-सज्जा में हिन्दी-संसार के सामने चली आवें। बेटी की शादी के बाद, पूरे ढाई साल का समय मुझे प्रकाशन को ही देना है। बच्चे लोग अपने घर सँभालें, देवेन्द्रजी अपना परिवार देखें, उनकी जो कमी हो उसे जित्तिनजी पूरा कर दें, दोनों भाई महेन्द्र को देखें- मैं अपनी कृतियों की ओर ही पूरा ध्यान दे सकूँ। 

पटना
14 मार्च, 1958

(संदर्भ : डायरी के पन्ने, श्री रामवृक्ष बेनीपुरी, पृष्ठ 490-492, बेनीपुरी चेतना समिति, मुजफ्फरपुर, प्रथम संस्करण)




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