महावीर प्रसाद द्विवेदी व रामचंद्र शुक्ल ने निराला की उपेक्षा की, मजाक उड़ाया

  • ----------------------------- राकेश रंजन

रीतिवादी आलोचकों के साथ ही द्विवेदी युग के दो धुरंधर आलोचकों–आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निराला की उपेक्षा और अवहेलना की, उनकी नई सृजनशीलता का विरोध किया। द्विवेदीजी ने उनकी कोई कविता 'सरस्वती' में नहीं छापी और शुक्लजी ने कवित्त लिखकर उनके कवि-रूप का मजाक उड़ाया और कहा कि उन्हें भाषा लिखने नहीं आती; उनके पास न भाव है, न अनुभूति भाँपनेवाली दृष्टि; वे पढ़े-लिखे भी नहीं हैं; फिर वे कविता क्या करेंगे!

"भाषा है, न भाव है, न भूति भाँपने की आँख
शिक्षा की सुभिक्षा भी न पाई कभी एक कन;
गाँथते हैं गर्वभरी गुरु-ज्ञान-गूदड़ी वे
चुने हुए चीथड़ों से, किए ब्रह्मलीन मन।
कहीं बंग-भंग-पद चकती चमक रही,
कहीं अँगरेजी अनुवाद का अनाड़ीपन;
ऐसे सिद्ध साइयों की माँग मतवालों में है,
काव्य में न झूठे स्वाँग खींचते हैं कभी मन।"

कहने की जरूरत नहीं कि इस छंद की एक-एक उक्ति से निराला पर व्यंग्य किया गया। उन्हें दृष्टिहीन और अशिक्षित ही नहीं, ज्ञानी और वेदांती होने का ढोंग करनेवाला, बांग्ला कविता की शब्दावली उड़ानेवाला तथा अँगरेजी कविता की नकल मारनेवाला कहा गया, लगे हाथ उनके प्रशंसकों को भी पागल कह दिया गया। लेकिन समय ने साबित किया कि आलोचक गलत थे और कवि सही था। अज्ञेय के शब्दों में कहें, तो धातु खोटा नहीं था, कसौटियाँ ही झूठी थीं।

आचार्य शुक्ल ने सिद्ध, जैन और नाथ कवियों की रचनाओं को काव्य की कोटि में नहीं माना। उन्होंने कबीर को भी उचित महत्त्व नहीं दिया। इसके पीछे उनके रसवादी और लोकमंगलवादी तर्क थे और इस तर्क के पीछे उनकी खास प्रकार की पाठकीय रुचि थी। हमें समझना चाहिए कि कोई भी रुचि, तर्क, विचारधारा या सैद्धांतिकी हर प्रकार की रचनाशीलता के मर्म तक पहुँचने में बाधक है। यह भी समझना चाहिए कि हर कवि अपनी खास तरह की पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और वैचारिक परिस्थितियों की उपज होता है, इसलिए उसकी काव्य-चेतना अन्य कवियों से भिन्न होती है। कवि एक तरह के नहीं होते और उन्हें पढ़ने वाली जनता भी एक तरह की नहीं होती। यही नहीं, एक ही कवि की दो कविताएँ दो तरह की हो सकती हैं और उन कविताओं के बारे में दो लोगों के विचार दो तरह के हो सकते हैं। इसलिए किसी आलोचक का यह कहना कि इसी तरह की कविता अच्छी है या इसी तरह की कविता कविता है और बाकी बेकार है, उचित नहीं कहा जा सकता।

आचार्य शुक्ल ने हिंदी कवियों की जो बृहत्त्रयी बनाई, उसमें उन्होंने सूर और तुलसी के साथ जायसी को शामिल किया, कबीर को नहीं। लेकिन हिंदी भाषाभाषी जनता कबीर-सूर-तुलसी को ही अपनी बृहत्त्रयी मानती है। इस मामले में हिंदी के इन सबसे बड़े आलोचक की दी हुई लाइन भी काम नहीं आई।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने अपने साहित्येतिहास-ग्रंथ 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास' में त्रिलोचन का कहीं नाम तक नहीं लिया है और न ही उनके किसी कविता-संग्रह का जिक्र किया है। जैसे हिंदी में वे कुछ हों ही नहीं, उनका कोई अस्तित्व हो ही नहीं! ऐसा उन्होंने किसी विचारधारा के तहत किया हो, यह बात भी नहीं, क्योंकि उसी ग्रंथ में उन्होंने दूसरे सभी प्रगतिवादी कवियों का न केवल उल्लेख किया है, बल्कि उनमें से कुछ की कविताओं पर विचार भी किया है। यह तो तय है कि ऐसा उनसे अज्ञानवश नहीं हुआ। तो क्या किसी 'मानवश' या 'आनवश' हुआ?

दूसरी तरफ, त्रिलोचन को लेकर प्रगतिशील आलोचकों का बरताव भी उत्साहवर्धक नहीं रहा है। डॉ. रामविलास शर्मा तो उन्हें मुखर रूप से नापसंद करते थे, बाकी प्रगतिशील आलोचकों के मन में भी उनके प्रति एक छिपा हुआ विकर्षण-भाव रहा है। त्रिलोचन अपने एक सॉनेट में कहते हैं : "प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है/ जिसमें कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं है...।" इन बातों का परिणाम यह हुआ कि दूसरे प्रगतिवादी कवियों पर मुख्यधारा के आलोचकों द्वारा लिखी या संपादित की हुई कई अच्छी किताबें मिल जाती हैं, वहीं त्रिलोचन पर मुश्किल से भी इतने ही लेख मिल पाते हैं, जिन्हें आप अपने हाथ की दो से तीन उँगलियों पर गिन सकें। तो क्या इससे त्रिलोचन खारिज हो जाते हैं?

अगर आलोचक ऐसा सोचते हैं कि वे जिस लेखक को छोड़ देंगे वह छूट जाएगा और जिसका उल्लेख कर देंगे वह अमर हो जाएगा, तो उन्हें इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए; और किसी सच्चे लेखक को भी इन चक्करों में नहीं पड़ना चाहिए।

लेनिन के हवाले से कहें तो 'जनता के खुरदुरे हाथों का पुण्यस्पर्श' ही एक लेखक को 'भाग्यशाली' बनाता है, कोई आलोचक, संपादक या प्रकाशक नहीं।

(डाॅ राकेश रंजन बीआरए बिहार विश्वविद्यालय के पीजी हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं। 'हंस' समेत विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, आलेख, समीक्षा आदि प्रकाशित।)

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