- पंकज कर्ण की तीन ग़ज़लें -
ग़ज़ल 01
वो सियासी हैं वो बातों को बदल कहते हैं
हम तो बस भूख बेबसी को ग़ज़ल कहते हैं
जिसकी हर ईंट से बहता है ग़रीबों का लहू
आज ऐसे ही मकानों को महल कहते हैं
पेट की आग बुझाने में लुटाई अस्मत
ऐसे जीवन को भी मजलूम सहल कहते हैं
इस नए दौर में यह इल्म हुआ है मुझको
जो हैं खुदगर्ज़ उन्हें लोग असल कहते हैं
लफ्ज़ दर लफ्ज़ सजाया जो दर्द 'पंकज' ने
आप इस दर्द के चेहरे को ग़ज़ल कहते हैं
ग़ज़ल 02
ग़लत क़िस्सा सुनाकर क्या करोगे
हमारा सच छुपाकर क्या करोगे
ज़रूरत दूध है जिसकी उसे तुम
खिलौनो से मनाकर क्या करोगे
जो दुश्मन की तरह जीता है उसको
कोई दुश्मन बनाकर क्या करोगे
मैं आया हूँ समंदर तैरकर अब
मुझे दरिया दिखाकर क्या करोगे
नतीज़ा जो भी है अब सामने है
मुसलसल आज़माकर क्या करोगे
उसे तालीम है उल्फ़त की ' पंकज'
उसे नफ़रत सिखाकर क्या करोगे
ग़ज़ल 03
सबकुछ अपने आप संभाला जाएगा
अर्थप्रबंधन कब तक टाला जाएगा
पहले हर भूखे को उनके हक़ की दें
मेरे अंदर तब ही निवाला जाएगा
पहले उनको अपना तो होने दें फिर
आस्तीन में सांप भी पाला जाएगा
"सबको न्याय सभी को उनका हक़ देंगे"
वोट है, जुमला फिर से उछाला जाएगा
रूप बदल 'पंकज' बहेलिया आया है
जाल बिछेगा, दाना डाला जाएगा
■ डॉ पंकज कर्ण
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पंकज कर्ण |
अँग्रेज़ी साहित्य (प्रकाशित कृतियां) : फिक्शनल आर्ट ऑफ हेरोल्ड रॉबिन्स, हिस्ट्री इन फ़िक्शन: ए न्यू पर्सपेक्टिव एवं दो कृतियों का संपादन।
अन्य : राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में निरंतर शोध-आलेख का प्रकाशन, दर्ज़नाधिक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सेमिनार, कॉन्फ्रेंस, सिम्पोज़ियम आदि में सहभागिता।
सम्मान : यूजीसी द्वारा प्रायोजित माइनर रिसर्च प्रोजेक्ट अवार्ड
संपर्क नं : 9835018472