- गिरिजेश्वर प्रसाद
आज यदि दलित बुद्धिजीवियों से पूछा जाए कि दलित राजनीति किधर? तब उनका जवाब क्या होगा? क्या वे कह सकते हैं- दलित राजनीति आंबेडकरवाद की ओर ? या किंचित संकोच और किन्तु-परन्तु के साथ कहने का साहस करेंगे कि दलित राजनीति हिन्दुत्ववादी फासीवाद की ओर ? क्या वे स्वीकार करेंगे कि दलित राजनीति हिन्दुत्ववादी फासीवाद की पालकी ढो रही है ? क्या वे पूरे आत्मविश्वास के साथ कह सकेंगे कि अम्बेडकर साहब के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष विचारों के साथ खड़ी है दलित राजनीति ?
17 दिसंबर को राज्यसभा में डॉ अम्बेडकर को लेकर गृह मंत्री अमित शाह की एक टिप्पणी और उसके बाद देश के मुख्य धारा के दलित नेताओं की चुप्पी ने दलित राजनीति की दिशा और दशा को लेकर बहस तेज कर दी है। दलित बुद्धजीवियों के बीच डॉ अम्बेडकर की वैचारिकी, दलित चेतना और दलित राजनीति को लेकर चर्चाएँ तेज हो गईं हैं। उनके सामने बड़ा सवाल है कि किसी भी नेता को अम्बेडकर साहब का मजाक उड़ाने की हिम्मत कहाँ से मिल रही है? क्या इसके लिए दलित राजनीति जिम्मेवार है या कोई दूसरे कारण भी हैं ?
क्या तथाकथित अम्बेडकरवादियों ने अम्बेडकर साहब के विचारों को आगे बढ़ाया है या क्षुद्र स्वार्थ में उनके विचारों के साथ वही खेल किया है,जो दूसरे राजनीतिक दल करते आ रहे हैं ?तथाकथित अम्बेडकरवादियों ने सत्ता की मलाई के लिए डॉ अम्बेडकर के विचारों को गिरवी तो नहीं रख दी है ? क्या सत्ता की चकाचौंध में बाबा साहब के तथाकथित अनुयायी भटक तो नहीं गए हैं ? क्या इनकी सत्ता भक्ति का परिणाम तो नहीं है,अमित शाह का बयान?
संसद में अमित शाह के बयान के बाद कुछ दलित बुद्धिजीवी बाबा साहब के 1951 के एक भाषण की चर्चा कर रहे हैं। इस भाषण में बाबा साहब ने दलितों को फॉरवर्डकास्ट के नियंत्रण वाली दलों के साथ गठबंधन करने से मना किया था। बाबा साहब ने 29 अक्टूबर 1951 को पटियाला में कहा था कि सवर्णों के नेतृत्व वाला कोई दल दलित वर्गों के हितों की रक्षा नहीं करेगा।
बाबा साहब के इस भाषण के आलोक में कई अम्बेडकरवादियों का मानना है कि बाबा साहब के अनुयायियों को भारतीय जनता पार्टी और काँग्रेस जैसे दलों के साथ नहीं जाना चाहिए। क्योंकि इन दलों पर उच्च जातियों का कब्जा है।
कुछ दलित बुद्धिजीवी बाबा साहब की उस बात को कोट करते हैं,जिसमें वे आर एस एस के हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को भारत के लिए बेहद खतरनाक बताते हैं। अम्बेडकर साहब ने कहा है- ‘अगर वास्तव में हिन्दू राज बन जाता है,तो इस देश के लिए भारी खतरा उत्पन्न हो जायेगा। हिन्दू कुछ भी कहें, पर उनका हिन्दुत्व लोगों की स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के लिए एक खतरा है।यह लोकतंत्र के लिए अनुपयुक्त है। हिन्दू राज को हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।’
डॉ. बी आर अम्बेडकर हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को लोकतंत्र और राष्ट्र के लिए सिर्फ खतरनाक ही नहीं बताते, वह इसे हर कीमत पर रोकने और इससे देश को बचाने का आह्वान भी करते हैं। बाबा साहब की इन दो चेतावनियों को यदि दलित चेतना और दलित राजनीति का पैमाना मान लिया जाए,तो यह देखना दिसचस्प होगा कि दलित नेतृत्व वाले किस राजनीतिक दल ने बाबा साहब की चेतावनियों को समझा और उस पर अमल किया।बाबा साहब डॉ अम्बेडकर के बाद भारत की दलित राजनीति पर नजर डालें,तो उनके विचारों को ठेंगा दिखाने वालों में दलित नेतृत्व वाले राजनीतिक दल और उसके नेता सबसे आगे दिखते हैं। उन्होंने अपर कास्ट के वर्चस्व वाले और हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले कट्टरपंथी राजनीतिक दल के साथ भी समझौता किया और उनके साथ सरकारें चलायीं।
अंबेडकर साहब के बाद कांशीराम दलितों के बड़े नेता हुए। उनकी अँग्रेजी में लिखी एक पुस्तक “An Era of Stooges” 1982 में प्रकाशित हुई थी।इस पुस्तक का हिन्दी में भी अनुवाद हुआ है और पुस्तक का शीर्षक है- “चमचा युग” ।
इस पुस्तक में कांशीराम ने वैसे दलित नेताओं के लिए चमचाशब्द का इस्तेमाल किया था, जो निजी फायदे के लिए भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों के साथ मिलकर राजनीति करते हैं।
कांशीराम ने मायावती के साथ मिलकर 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया। आगे चलकर 1995 में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। 1997 और 2002 में भी उन्हें भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली।
कहा जाता है कि भारतीय जनता पार्टी से डील के सूत्रधार कांशीराम ही थे। वही कांसीराम जो 1982 में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे दलों के साथ मिलकर राजनीति करने वालों की आलोचना करते थे,1995 आते-आते वे बदल जाते हैं।
सवाल है कि जब कांशीराम भारतीय जनता पार्टी के साथ सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर सौदेबाजी कर रहे थे,तब उन्हें डॉ अम्बेडकर के विचार और उनकी चेतावनियों का ध्यान क्यों नहीं रहा ? क्या कांशीराम सत्ता की चकाचौंध में अम्बेडकरवाद से भटक गए थे ? क्या मायावती की अतिमहत्वाकांक्षा ने उन्हें भारतीय जनता पार्टी से सौदेबाजी करने को मजबूर किया था ? क्या यह दलित राजनीति का फासीवादी ताकतों की ओर झुकाव का प्रस्थान बिन्दु था ?
कारण चाहे जो भी रहे हों,इतना तो कहा ही जा सकता है कि 1995 में कांशीराम और मायावती का भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता करना दलित राजनीति में बहुत बड़ा टर्निंग प्वाएंट था। और यह डॉ भीमराव अम्बेडकर के विचारों को तिलांजली देकर सत्ता हासिल करने के सिलसिले की शुरुआत थी। यह सिलसिला जो शुरु हुआ, वह पूरे ठसक के साथ चलता ही जा रहा है। मायावती, अठावले, और रामविलास पासवान की परंपरा के ताजा वारिस चिराग पासवान और जीतन राम माँझी हमारे सामने हैं।
इस संदर्भ में एक और बात के लिए कांसीराम की चर्चा करना यहाँ जरुरी है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार चलाने के बाद कांशीराम ने मजबूत नहीं,मजबूर सरकार का नारा दिया था। इसे कांशीराम कादर्शन कहा गया। उनका दर्शन था कि मजबूर सरकारों को जनहित के काम करने पर मजबूर किया जा सकता है। कमजोर सरकार के साथ सौदेबाजी करना आसान होता है। मजबूत सरकारें मनमानी पर उतर आतीं हैं।
बैशाखियों पर टिकी एक मजबूर सरकार के गृह मंत्री अमित शाह के संसद में दिए भाषण को ही ले लें। यदि अमित शाह को गठबंधन के साथी दलों का जरा भी भय होता,तो वे अम्बेडकर साहब का इस तरह मजाक नहीं उड़ाते। यदि ऐसा करने का साहस वे जुटा पाए,तो इसका मतलब है कि उन्हें नीतीश कुमार,चिराग पासवान और जीतन राम माँझी की कोई परवाह नहीं है। शायद, वे जानते हों कि इन नेताओं में इतना नैतिक साहस नहीं बचा है कि वे अमित शाह के सामने तन कर खड़ा तक हो सकें।
इसे जीतन राम माँझी और चिराग पासवान ने अक्षरशः साबित भी कर दिया। अमित शाह का विरोध करने के बजाए वे उनके पक्ष में खड़ा हो गए। जीतन राम माँझी ने सोशल मीडिया एक्स पर 18 दिसंबर को अमित शाह की प्रशस्ति में लिख दिया कि अम्बेडकर साहब का भारत अमित भाई के साथ है। उधर, चिराग पासवान ने कहा कि अमित शाह ने अम्बेडकर साहब का अपमान नहीं किया है।
क्या यह कांशीराम इफेक्ट है ? क्या यह मान लेना चाहिए कि सत्ता के साथ चिपके रहने के लिए अम्बेडकर साहब के विचारों और उनकी चेतावानियों का उनके लिए कोई महत्व नहीं है? क्या सत्ता के लिए अम्बेडकर साहब के सम्मान को भी दाँव पर लगा देना तथाकथित अम्बेडकरवादियों का राजनीतिक चरित्र हो गया है? क्या सत्ता के लिए हिन्दुत्ववादी-फासीवादी ताकतों की पालकी ढोने से भी दलित राजनीति को परहेज नहीं है ?
कांशीराम-मायावती के दौर से चलते हुए दलित राजनीति अभी तक हिन्दुत्ववादी-फासीवादी ताकतों के पक्ष में खड़ी होती रही है। आलोचकों के इस बात को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है कि आज यदि देश में हिन्दुत्ववादी ताकतें इतना मजबूत हुई हैं,तो इसके पीछे दलित राजनीति के सत्ता लोलुप नेतृत्व का बड़ा योगदान है।
बेशक यह दलित राजनीति का काला अध्याय है। परन्तु,इसके साथ यह भी सच है कि देश का दलित समाज इन सत्ता लोलुप नेताओं को पहचानने लगा है। दलितों का बड़ा वर्ग इन नेताओं के खिलाफ मुखर भी है। अमित शाह के बयान पर देश भर में हुए विरोध प्रदर्शन बताते हैं कि अम्बेडकर का भारत अमित शाह के साथ नहीं है। दलित चेतना जीतन राम माँझी और चिराग पासवान जैसे नेताओं के साथ भी नहीं है। दलित वर्ग से आने वाले बुद्धिजीवियों का भी एक बड़ा वर्ग हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ खड़ा है और लड़ रहा है।
तब, क्या अम्बेडकरवादी चेतना से लैस लोकतांत्रिक धारा आगे बढ़ पाएगी या मोदी-शाह के चरणों में लोटने वाली धारा ताकतवर बनी रहेगी? चलिए, देखते हैं आगे दलित राजनीति में कोई बड़ा बदलाव होता भी है या नहीं।
(लेखक गिरिजेश्वर प्रसाद फ्रंट पेज हिन्दी यूट्यूब चैनल के संपादक हैं। ये लेखक के निजी विचार हैं।)