संतोष सारंग की दस कविताएं

1. गुजरात से हूं 

गुजरात से हूं

इतिहास बदलने आया हूं

झूठ की बुनियाद पर

संसार बदलने आया हूं


नफ़रत का मशाल लिये

धर्म का कटार लिये

हिंदुत्व का सार लिये

राष्ट्रवाद का झाल लिये

पूरी फिजा बदलने आया हूं

गुजरात से हूं

इतिहास बदलने आया हूं


मानवता की ऐसी-तैसी

भाईचारे की बात कैसी

समाज टूटे मंशा ऐसी 

वोट का सौदागर बन

राजनीति बदलने आया हूं

गुजरात से हूं

इतिहास बदलने आया हूं


अच्छे दिनों के नाम पर

पंद्रह लाख के दाम पर

उल्टे-पुलटे काम पर

जुमलेबाजी के बाम पर

अपनी छवि चमकाने आया हूं

गुजरात से हूं

इतिहास बदलने आया हूं


हम वो महामानव नहीं

जो रच कर इतिहास बदलते हैं

हम वो अवतारी पुरुष हैं

जो इतिहास के स्वर्णिम पन्नों को फाड़

अपना नया इतिहास बनाते हैं

गुजरात से हूं

देश का तकदीर बदलने आया हूं


उर्दूनुमा नाम बदलने आया हूं

विरोधियों को जड़ से मिटाने आया हूं

गुजरात से हूं

इतिहास बदलने आया हूं।


2. आत्मा को शांति 

आषाढ़ कृष्णपक्ष की काली घनी रात

मरघटी सन्नाटे की साड़ी में लिपटी

भुतहा गाछी और अनहोनी-सी आहट

झोपड़ी से आती कुहूं-कुहूं की आवाज

यह कुहड़न भूख से तड़पन की तो नहीं

ढीली खटिया में फंसी थी रमैया की मैया

एकदम से बूढ़ी, बीमार और लाचार

आंखें धंसी जा रही मौत का था इंतज़ार

समय का पहिया घुमा टूट गयीं सांसें

बेबस था बेटा सामने थी मां की लाश

साथ में कई सवाल कैसे होगा निदान

अंतिम-संस्कार, दशकर्म, मृत्युभोज, गोदान

महाजन तैयार पैसों का हो गया इंतजाम

घरारी का पुश्तैनी दस धुरवा टुकड़ा है न

धूमधाम व अच्छे से हो जायेगा सब काम

डोम के लिए बख्शीश, बरगामा का भोज

पंडीजी को दही-चूड़ा, दान के लिए गाय

चमरटोली में चर्चा पंडीजी हो जइहैं खुश

जर्सी गाय की रस्सी पकड़े पंडी जी बोले

बुढ़िया मैया की आत्मा को मिलेगी शांति

कामकाज हुआ संपन्न, पंडीजी भी तृप्त

गुजरता गया दिन, हफ्ता और महीना

कर्ज-सूद के बोझ तले दबता गया रमैया

पंडी जी के दरवाजे पर मर गयी गइया

बभनटोली से चमरटोली में आया फरमान

ले जाओ मरी हुई गइया उधर खाल दो

दो टूक जवाब आया तुम खुद खाल लो

सरसोलकन की इतनी औकात, दुस्साहस

आज से हुक्का-पानी और रास्ते रहेंगे बंद

सवर्ग में बुढ़ी मैया की आत्मा तड़प उठी

अशांत हुआ टोला महाजन भी चढ़ बैठा

डरे-सहमे अछूतों ने एक-दूसरे से पूछा

मिल गयी न बुढ़िया की आत्मा को शांति.


3. बस उसने 

उसने

बड़ी मेहनत से कमाया

कुछ खाया-पीया

और कुछ लुटाया

उसी धर्म के नाम पर

जिसने उसे अछूत बनाया।


उसने

बड़ी मेहनत से चंदा जुटाया

कुछ मौज-मस्ती में उड़ाया

और कुछ इधर भी लगाया

उसी देवालय के नाम पर

जिसमें उसका जाना मना है।


उसने

बड़ी मेहनत से रमाया

अपने बावले मन को

कुछ धर्मांध जन को

उसी देवाधिदेव के नाम पर

जिसने उसे अफीम चटाया।


उसने

बड़ी मेहनत से टेंट लगाया

उसे दुल्हन की तरह सजाया

गदरायी नर्तकी को नचाया

उसी देवी माता के नाम पर

जिसने उसे अंधभक्त बनाया


उसने

अपना पूरा जीवन लगाया

कुछ शक्ति की भक्ति  में

कल्याणेश्वर की आसक्ति में

ताकि लल्ला का भाग्य बदल जाए

घर-परिवार का हाल बदल जाए।


बस उसने

मेहनत से नहीं कमाया

अच्छा और सच्चा ज्ञान

बड़े-बुजुर्गों के लिए मान

भय-भूत, भगवान के बदले

तर्क, विज्ञान और अभिमान।


4. मैं रोज सीखता हूं  

मैं रोज सीखता हूं

हरीतिमा आच्छादित बगियों से

रंग औ' सुगंध बिखेरते गुलशन से

आम्रमंजरियों पर मंडराते भ्रमर से

निराशा-भरे जीवन में रंग भरना. 


मैं रोज सीखता हूं

बारिश की निर्मल-कंचन बूंदों से

बलखाती बहती नदियों से

गंगा-गोदावरी की धाराओं से

प्यासे जन-गण-मन को तृप्त करना.


मैं रोज सीखता हूं

कंकड़ीली-पथरीली कठिन राहों से

खेतों-गांवों से गुजरती पगडंडियों से

हाकिम तक जाती चमचमाती सड़कों से

मंजिल मिलने तक बस चलते जाना. 


मैं रोज सीखता हूं

चक्रवाती तूफानी हवाओं से

सागर में उठती लहरों से

हिमालय की ऊंची चोटी से

अडिग, उन्मुक्त व शांत रहना.


मैं रोज सीखता हूं

दीवारों पर चढ़ती-गिरती चीटियों से

चढ़ कर गिरना, गिर कर चढ़ना

पर्वतारोहियों के फौलादी हौसलों से

ऊपर उठना, सिर्फ ऊपर उठना. 


मैं रोज सीखता हूं

अंबर की अनंत ऊंचाइयों से

धरती के चीर-धीर फैलावों से

प्रकृति में निहित असीम उर्जा से

खुद को संकुचित नहीं, विस्तृत करना.


बस नहीं सीखता हूं तो केवल

मानव रचित बेकार-बेमतलब किताबों से

सीखने के लिए चाहिए सिर्फ समझ

प्रकृति भी क्या किताबों से कम है?


5. मैं हूं वो लड़की 

तुम मेरे अरमानों का गला घोंट दो

तुम मेरी इज्जत को कर दो तार-तार

तुम मेरे जख्मों पर नमक छिड़क दो

तुम मेरी लाश पर छिड़क दो केरोसिन


मैं हूं वो लड़की

जो लड़ कर लेगी

जो अड़ कर लेगी

हर जुल्म का हिसाब



तुम मेरे सपनों का आशियाना उजाड़ दो

तुम मेरी खुशहाल जिंदगी में लगा दो आग

तुम मेरे आजाद ख्याल पर पहरा लगा दो

या फिर मेरी जुबान पर जड़ दो बड़ा ताला


मैं हूं वो लड़की

जो जब्र में भी करेगी

जो कब्र में भी करेगी

जंग-ए-आजादी का ऐलान


6. क्षितिज 

क्षितिज 

जिसकी छोर पर

सूरज की लालिमा

वसुंधरा की कालिमा

एक-दूसरे से जैसे

मिल जाने को हो आकुल


क्षितिज

जिसके पार

अद्भुत अंबर

रत्नगर्भा धरती

के मिलन का 

हो जैसे आभास


क्षितिज  

जिसकी आभासी रेखा पर

दिवा की विदाई

निशा का आगमन

संग मिलन का इंतजार

जैसे उल्लासित हो सांध्य बेला


क्षितिज

जिसके पार

जीवन और मौत के अर्थ की तलाश

कालचक्र का घर्घर नाद

वक्त के बेरहम प्रतिघात

के साथ जैसे होगी पूरी


क्षितिज

जिसकी छोर पर

बैठा है एक बूढ़ा आदमी

इस उम्मीद के साथ

कि आयेगी वह सांझ

जब मिट जायेगा सुख-दुख का फर्क


7. बेटा 

मां और बीबी के बीच

ऐसे पिसता है जैसे

जांता के दो पाटों के बीच

पिसता है धन-धान्य

शादी के बाद

मां को लगता है

बेटा बदल गया है

सिर दुखने पर कल तक

वह आता था मेरे आंचल में छुपने

आज वह तलाशता है बीबी की पल्लू

मां की हथेली तरसती है

बेटा का माथा सहलाने को

मां को फिर लगता है

बेटा बदल गया है

शादी के बाद 

बीबी को लगता है

बुढ़िया का खजाना मिल गया

मां की ममता छीनने पर खुश है वह

प्यार की तशतरी लिये खड़ी है वह

पति को कब्जे में करने का सुकून

उधर सास बेचारी है दुख से लदी

बेटा के लिए मां और बीबी

दोनों हैं तराजू का पल्ला

वह दोनों को खुशी देने का 

कर रहा भरसक प्रयास

लेकिन मां को लगता है

बंट गया है उसका प्यार

मां को देता अधिक वक्त

तो बीबी हो जाती उदास

बीबी को अधिक दुलारता

तो मां हो जाती निराश

आखिर क्या करे बेटा बेचारा

सिलवट पर उसका 

अरमान पिस रहा है

चाह कर भी वह दोनों को

नहीं कर पा रहा खुश

जिंदगी बन गयी है 

उसकी नरक जैसी

आखिर क्या करे

बेटा बेचारा! 


8. राजनीति है भाई

 

राजनीति है भाई

यहां सब चलता है,

इलेक्शन के बाद

वोटर हाथ मलता है।


झूठ-फरेब और चापलूसी

मक्कारों का सिक्का जमता है,

झूठे वादे और लफ्फाजी

षड्यंत्रकारी वो चाल चलता है।


उल्टी-पुल्टी बातों में फांस

तरह-तरह के जाल बुनता है,

मगरूर हो ऐसे चलता है

जनता की न एक सुनता है।


धक-धक धोती, मलमल कुर्ता

काली कमाई पर वह पलता है,

 घोड़ा-गाड़ी, बंगला-मोटर

विरोधियों को देख वह जलता है।


ईमानदारी की बात न कर

पावर, पैसा तू पकड़,

नैतिकता, शुचिता बेकार की बातें

बस ढोंग-ढकोसला ही चलता है।


नाटकबाजी और शोशेबाजी

बहुरुपिये का रूप धरता है,

झूठ इतनी बार बोलता है कि

सबसे सच्चा दिखने लगता है।


बेटा-बेटी, भाई-भतीजा

यहां सब चलता है

अजी, देश हित की बात छोड़िये,

अपनी जेब तो खूब भरता है।


राजनीति है भाई

यहां सब चलता है

सड़कें सूनी, संसद मौन

बस खद्दरधारी नेता बोलता है।


9. ये कैसी हवा चल पड़ी है

ये कैसी हवा चल पड़ी है

धुंध में लिपटी हुई-सी

धूल-कणों में सनी हुई-सी

कालिमा की चादर ओढ़े

सनसनाती, अट्ठहास करती

मतवाली चाल चल रही है.


अजीब-सी गंध है

मंद है, पैबंद है

ये असहिष्णुता की दुर्गंध है

वन चमन को मानव मन को

वातावरण और धरती तल को

दूषित करती चल रही है.


श्वास बनकर ऊंसांस भरती

रक्त-कणों में, धड़कनों को

स्पंदित करती, प्राण भरती

अब हो चली है जानलेवा

दमघोंटू और जहरीला

प्राण हरती चल रही है.


सबक सिखाती इंसानों को

कहती-फिरती चल रही है

राम-रहीम हो या मुल्ला

पोंगा-पंडित हो या भुल्ला

सबके फेफड़ों को भरती

रुग्ण करती चल रही है.


ये कैसी हवा चल पड़ी है

 संसद के गलियारों से बहती

जोर लगाती, दीवारों से टकराती

राजनीति की सड़ांध लिये

अब हो चुकी है तेज हवा

दमनकारी हो चल रही है.


सत्ताधीशों, धनवानों को

धर्मभीरुओं और हुक्मरानों को

चिल्लाती कहती, ऐ इंसानों

ताकत है तो बांट मुझे

हिंदू और मुसलमानों में

तुममें कभी उसमें मैं विचरता रहता हूं.


तुम्हारे स्वार्थ व ऐश्वर्य ने

मुझे और सघन किया है

धर्म व धुएं के गुबारों ने

मुझमें और जहर भरा है

अब न माने तुम इंसानों

प्राण-वायु को तरस जाओगे. ‍


10. जिस दौर में 

जिस दौर में बिकने लगे हैं शब्द 

जिस दौर में कैद होने लगी हैं कलमें 

उस दौर में भी मेरी आवाज है आजाद 

उस दौर में भी मेरी कविताएं कर रहीं संग्राम 







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