-------------------------देवेंद्र आर्य
रात के अंधेरे में जाता है पार्टी कार्यालय
जैसे जा रहा हो कोठे पर
हिन्दी का कवि मिलता है सत्ता सिपहसालारों से
ऐसे जैसे गुप्त रोग विशेषज्ञ से मिलता है कोई
मुदित मन हिन्दी का कवि
पुरस्कृत होता है ऐसे
जैसे कड़कड़ाती सर्दी में जबरिया नहला दिया गया हो
हिन्दी का कवि प्रेम करता है
जैसे कोई छुतिहर काम कर रहा हो
हर समय जेब से सतर्क
कोई प्रेम पत्र बरामद न हो जाए
हिन्दी का कवि जीवन में वह सब चाहता है
जो कविता में नहीं चाहता
जिसके ख़िलाफ़ लिखता है
उसी के लिए बिकता है
कौवों की तरह फ़िराक़ में रहता है
आहट पाते ही फुर्र किसी ऊंची सुरक्षित जगह
मुलायम नहीं कमज़ोर दिल
किसी के साथ नहीं होता हिन्दी कवि
न अपने न उनके जिनके लिए लिखता है
विचार के साथ भी नहीं
केवल व्यवहार के साथ
कौवा कान ले उड़ा वाला मुहावरा बहुत पसंद है उसे
इसी की व्याख्या में जीवन भर कांव-कांव करता
किसी छांव बैठा रहता है
विमर्श की मुद्रा में
ऊपर वर्णित इन सब हरजाईपने से पाक साफ़
कोई कवि पसंद है मुझे तो श्रीकांत वर्मा
मरते दम सियासी मौज ली
जीते जी मगध रचा
हिन्दी का एक और मर्द कवि
पिछले दिनों सामने आया
नीली काई छांटते
पीला उजाला बिखेरते
माफ़ कीजिये
अपरिहार्य कारणों से मैं
कवि-नारायण का नाम नहीं ले सकता
सेफ़ साइड बाएं चलना ज़रूरी है
वैसे ही जैसे पत्नी के साथ होने पर
प्रेमिका को एवायड करना
सियासत की शाम
और छलकते जाम का इंतजार है मुझे
जब हिन्दी का यह कवि मुख्य अतिथि होगा
और मैं बाइस में लिखी अपनी कविता
चौबीस में उसे भेंट करूँगा
हिन्दी के दरिद्र पाठकों
मुक्तिबोध की तरह थोड़ी मरना है मुझे
कि मेरी कविता के चांद का मुंह टेढ़ा रहे
(चार दशकों की रचना यात्रा में कविताओं की पंद्रह और आलोचना की एक पुस्तक प्रकाशित। तीन पुस्तकों का संपादन। रंग कर्म, ट्रेड यूनियन और सामाजिक आंदोलनों से गहरा जुड़ाव। 2017 में रेल सेवा से निवृत, गोरखपुर में स्थायी निवास।)
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देवेंद्र आर्य |