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बच्चा लाल उन्मेष |
युवा कवि बच्चा लाल उन्मेष हिन्दी कविता की दुनिया में किसी ध्रुवतारे की तरह अपनी मौलिक चमक के साथ उदय हुए हैं। बच्चा लाल उन्मेष ने अपनी मात्र एक कविता 'कौन जात हो भाई' से सोशल मीडिया पर रातों-रात जो लोकप्रियता हासिल की, वह वाकई काबिलेतारीफ है। मात्र एक कविता से दलित-विमर्श खड़ा करने वाली कविता ने देखते-देखते जनकविता का रूप ले ली है। अब इसी शीर्षक से प्रकाशित बच्चा लाल उन्मेष का नया और पहला काव्य संग्रह 'कौन जात हो भाई' में कुल 66 कविताएं संकलित हैं | इन सभी कविताओं में आए समकालीन सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विमर्श, बहस, संघर्ष और दलित बहुजन चेतना को आसानी से देखा जा सकता है। बच्चा लाल उन्मेष के संग्रह की तमाम कविताएं समाज में फैली असमानता, उत्पीड़न, शोषण, दमन को वर्गीय और जातीय दोनों आधार पर चिन्हित करती हैं और उन पर कड़ा प्रहार करती हैं। एक तरफ ये कविताएं मनुवाद पर आधारित ब्राह्मणवाद की पोल खोलती हैं, तो दूसरी ओर दलितों, मजदूरों, किसानों, स्त्रियों पर होने वाले जुल्म और शोषण की खिलाफत करते हुए उनके पक्ष में मजबूती से खड़े होकर उन पर होने वाले अन्याय और शोषण के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद करती हैं। बच्चा लाल उन्मेष की कविताएं हाशिये के, वंचित समाज के ग्रामीण – शहरी समाज की जनता का सत्ता की राजसी महत्वाकांक्षा का शिकार होने की पीड़ा का भी बयान करती हैं। कोरोना से पीड़ित मजदूरों का दुख-दर्द पर सत्ता और उसके संस्थानों की बेरहमी और उसमें जान गंवाते लोगों का बयान भी कवि अपनी कविताओं में दर्ज करता है।
कविता संग्रह की पहली कविता 'छिछले प्रश्न, गहरे उत्तर' कविता में कवि दलितों के साथ की जा रही वोट की राजनीति पर करारा व्यंग्य करते हुए लिखता है- कौन जात हो भाई?/ ‘दलित हैं साहब।’/ नहीं मतलब किसमें आते हो?/आप की गाली में आते हैं,/ गन्दी नाली में आते हैं /और अलग की हुई थाली में आते हैं/ मुझे लगा हिन्दू में आते हैं,/ आता हूं न साहब! /पर आपके चुनाव में/ आज की नफरत भरी साम्प्रदायिक राजनीति में कवि बड़ी ही प्रतिबध्दता से अपनी बात रखते हुए उसका विरोध दर्ज़ करते हैं। धोती खींच साफा बांधे/ छोड़ आए हमें किसके कांधे/ ले लो खून का कतरा/पर दो नफरतों की चाय नहीं/ जो चाय मैत्री और प्यार की प्रतीक होती थी, वही ‘चाय’ अब राजनैतिक शब्द हो गयी है जिसने समाज की प्रेम-प्यार व सौहार्द वाली भावना को नफरत और कुंठा की भावना में बदल दिया है। राजनैतिक स्वार्थों के चलते आस्था का व्यवसाय अब गाय, गोबर और निर्दोषों के कत्ल पर फल-फूल रहा है- ''जो सिधिंयाता था सड़कों पर निर्दोषों को भी/ वो सांढ़ अदालत के बीच, गाय निकला।''
अपनी इन संकलित कविताओं में कवि ईश्वर पर जागरुक होकर तर्क शाक्ति से बात करता है। वह जानता है कि ईश्वर को स्थापित करने में किसका लाभ है और उसका कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। ईश्वर को सत्ता बनाने और उस सत्ता को अपने लिए इस्तेमाल करने पर कवि उस ईश्वर के ही अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर देता है- ''ईश्वर इतना सस्ता है/जिसे जेब में पंडा रखता है/सत्ता की तरह।''
बच्चा लाल सामाजिक सरोकार के कवि हैं। वह जानते हैं, किस तरह सत्ता और धर्मसत्ता ने शूद्रों और अतिशूद्रों का इस्तेमाल अपनी शान-शौकत, अपनी ताकत और अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए किया है। इसलिए वह उनको जगाते हुए, उनकी गुलाम मानसिकता पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते हुए कहते हैं - “तुम पूज्य नहीं हमारे ग्रंथों में/ तब भी नही थे, शूद्र हो, और शूद्र रहोगे/ कुछ आयेंगे तुम्हारे अपने, बुनियाद उठाने तुम्हें पढ़ाने/ पर तुम हरकत नहीं करोगे/ क्योंकि तुम्हारा समाज/ मंदिरों में जा जाकर मूढ़ हो चुका है।”
'किस काम का ईश्वर' कविता में बच्चा लाल उन्मेष त्रावणकोर के चेरथला की रहने वाली दलित वीरांगना नांगेली की बहादुरी की, उसके पराक्रम की चर्चा कर बाकी स्त्रियों को उसकी तरह किसी भी अन्यायी और अत्याचारी के आगे न झुकने की प्रेरणा देते हैं। वीरांगना नांगेली वह बहादुर महिला थी, जिसे अन्य दलित महिलाओं की तरह उसको भी सार्वजनिक स्थानों पर अपने स्तन को खुला रखने के लिए मजबूर किया गया, परंतु नांगेली ने इसका खुलकर विरोध किया और इसके लिए उसे अपनी जान देनी पड़ी। ''हे जगत जननी, हुंकार उठो/ ले खड़ग हाथ अबकी बार उठो/ काटने आए फिर से स्तन/ केरल की नांगरी नार उठो।'' जिस तरह केरल की दलित वीरांगना नांगेरी जिसने स्तन ढंकने की लड़ाई लड़ी, उसी की भांति वे सावित्रीबाई फुले के योगदान को मानते हुए उसे ब्राह्मणवाद द्वारा स्थापित अपनी शिक्षा की नायिका सरस्वती के बरक्स दलित, वंचितों, मजलूमों की नायिका सावित्रीबाई फुले को अपनी नायिका मानते हैं - ''कुत्सित, कल्पित मनु से उपजी/ सरस्वती वो तेरी है/ निर्धन, दलित हम शोषितों की/ सावित्री ज्ञान की माई बनी।''
बाबा साहेब अम्बेडकर की जीवनसंगिनी रमाबाई से कौन वाकिफ नहीं है। जिस तरह रमाबाई अम्बेडकर ने बाबा साहेब अम्बेडकर की दलित, शोषित व पीड़ित जनता के हक की लडाई में साथ खड़ी रही, उनके इन्हीं सामाजिक योगदान की बच्चा लाल उन्मेष बखूबी चर्चा करते हैं - ''कोटि-कोटि बच्चों के खातिर/ खुद के पूत बलिदान किए/ स्वाभिमान को स्थापित करने/ कफन स्वयं रमाबाई बनी।''
मजदूरों, किसानों और दलित-वंचितों के हक में लिखी कविताओं में कवि बच्चा लाल उन्मेष की संवेदना और उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता देखी जा सकती है। संग्रह में शामिल 66 कविताओं में से उनकी दर्जन से ज्यादा कविताएं किसानों, मजदूरों और शोषित पीड़ित जनपक्षधरता पर ही लिखी गई हैं। इन कविताओं में इस मजलूम वर्ग को अंधविश्वास में जकड़ा, कम मजदूरी पाता, भोजनहीनता का शिकार, मालिकों से सताया हुआ, सामाजिक-राजनैतिक षड्यंत्र और सत्ता के दमन के शिकार के रूप में ही चित्रित किया है। राष्ट्रवाद के खोखले सिद्धांत की पोल खोलती कविता- 'मनमाफिक अपराध’ में कहते हैं -
''जब भूखा इंसान रोटी की चाह भूल जाये
और भटका इंसान घर की राह भूल जाये
उसे राष्ट्रवाद की दारू कोई भी पीला सकता है।''
'एक गरीब परिवार था।' कविता मीडिया और आज के समय की वाट्सएप यूनिवर्सिटी, मनुवादी सोच द्वारा शोषक के पक्ष में एकपक्षीय गढ़ी गई कहानी गढ़ कर उनको दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण मिलने पर प्रहार करती है - ''एक गरीब परिवार था/ कहानी-रटी-रटाई-सी जान पड़े तो/ खाली स्थान खुद ही भर लें/ पर इन बस्तियों में उस परिवार की अब भी तलाश है मुझे/ आपको पता हो तो कहानी आगे बढ़े।''
‘जल, जंगल, जमीन और हमारा जमीर’ कविता में सत्तासीनों और वर्चस्ववादी ताकतों द्वारा दमन के तमाम तरीके अपनाने के अलावा बहकावे और भड़कावे की भी राजनीति होती है, जो भोले-भाले मासूम दलित-आदिवासियों से उनकी अपनी मेहनत से अर्जित संसाधन छीनने का काम करती है - ''मांस के अतिरिक्त तुम्हें जानवरों से मिलता है क्या?/ मिलता है प्यार गर उन्हें हम जानवर न कहे/ जल के अतिरिक्त तुम्हें नदियों से मिलता है क्या?/ मिलती हैं कई सभ्याताओं की बुनियाद/ गर हम सभ्यता से कहे।''
वर्तमान में अमीर-गरीब की बीच की खाई इतनी बढ़ गई है और उस खाई को बाजारवाद और पूंजीवाद के गठजोड़ की एक झलक 'चावल के कमजोर दाने' कविता में देखने को मिलती है-
"एक चावल न खाने से मर गई/ एक चावल खाने से डर गई"
एक अन्य कविता में - "कि जैसे आखिरी भोजन हो उस गरीब का/ कौन इस हद तक आंतों को चबाया होगा।"
बच्चा लाल उन्मेष की कविताएं कबीरदास की तरह ही साम्प्रदायिकता पर कसकर हल्ला बोलती हैं। एक तरफ दिनोंदिन मंदिरों में जमा होता अकूत धन और दूसरी ओर भूख से मरते लोग भारतीय समाज की विडंबना है।
"मंदिर में लाख-लाख सोने की खान/ बिन रोटी निकल गई रामू की जान"
‘गणतंत्र पर षड्यंत्र’ कविता किसान आंदोलन की कविता है। जब सत्ता द्वारा किसानों के आंदोलन को कुचलने के लिए उनको उनके प्रदर्शन स्थल पर कैद करने के लिए मोटी मोटी-मोटी नुकीली गढ़वा दी गई थी। लोकतंत्र की हत्या के इस अवसर को कवि अपनी कविता के माध्यम से किसानों की आवाज को अपना स्वर देता है- "हो उस पार या इस पार/ खींच लो रेतीले तार/ राष्ट्रवाद की सूंघनी देकर, कोई भूखा सुलाता है।"
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि युवा कवि बच्चा लाल उन्मेष अपनी कविता के माध्यम से दलित, स्त्री, किसान मजदूर, गरीब-पिछड़े, धर्म और राजनीति से चोट खाए मजलूमों की आवाज़ बनकर उभरे हैं। इतनी कम आयु में कविता के इतने व्यापक फलक को समेट लेना, जिसमें लोकतन्त्र, गणतंत्र, आजादी, गुलामी, नैतिकता, अनैतिकता, पाखंडवाद, आदर्शवाद को अपनी कविता में समेटते हुए चलते हैं। अपनें देश के नदी-नालों, जल, जंगल, जमीन, सभ्यता की चिंता के साथ अपने नायकों के प्रति सम्मान व कृतज्ञता की भावना भी पैदा करती हैं। भाषा की दृष्टि से कविताएं बेहद सरल पठनीय और दिल को छू जाने वाली हैं। कविता में व्यंग्यात्मक शैली कविता को और पठनीय और वैचारिक बना देती है। अंत में कवि को उनके सद्य: प्रकाशित कविता संग्रह पर बहुत-बहुत मुबारकबाद।
- अनिता भारती